स्कंदपुराण अध्याय 89 & 90

वसिष्ठजी बोले – हे देवि ! इस प्रकार रक्तबीज क वध मैंने बता दिया, जिसे सुनकर भी मनुष्य करोड़ों जन्मों के पाप से मुक्त हो जाता है । १ ।

अब मैं कालिका का अत्यन्त दुर्लभ माहात्म्य, जो कलियुग में दुर्जन मनुष्य से बहुत छिपाने योग्य है, तुम्हें बताऊँगा । २ ।

काली पूजन और स्मरण करने से भी प्रत्यक्ष फल देती है, जो कोई मानव भक्ति से परम शिवा का पूजन करेगा, वह प्रलयकाल तक रुद्र-भवन में वास करता है । ३ ।

सतयुग में जो पुण्य करोडों वर्ष में प्रप्त होता है, वह पुण्य यहां तीन रात में ही प्राप्त हो जाता है, ईसमें सन्देह नहीं । ४ ।

जो एक उड़द के बराबर सोना कालिका को समर्पित करता है, वह प्रतिदिन कोटिगुण बढ़ते हुए फल को प्रप्त करता है । ५ ।

यह काली दर्शन से भी मोक्षफ्ल को देने वाली है । जो एक गोचर्म (भूमि की एक नाप, चरसा) मात्र भूमि कालिका को प्रदान करता है, उसका विष्णुलोक से कभी पतन नहीं होता, भले ही ग्रह, नक्षत्र और तारों के समय से गिरने का भय हो । ६-७ ।

जो वहाँ वेदपारंगत ब्राह्मण को तिल की बनी धेनु दान करता है, उसे समुद्र, वन और द्वीपों समेत पृथ्वी दान करने का फल मिलता है । ८ ।

वह करोड़ों सूर्य के समान (प्रकाशमान) तथा सकलकामनादायक विमानों से अक्षय लोक को प्राप्त करके चिरकाल तक आनन्द प्राप्त करता है । ९ ।

जो पक्षियों, महिषों, छागों (बकरों) तथा मृगों को देता है, वह सूर्य के समान कान्ति वाले दिव्य विमानों से गन्धर्वों द्वारा गुणगान किये जाते हुए देवीलोक में (पहुँचकर) नित्य निवास करता है । वहँ से भूमि पर आने पर धार्मिक, सत्यवक्ता और पुत्रों से समन्वित राजा होता है । १०-११ ।

शिवे ! वह इस लोक में सूख भोगकर परम हर्ष प्राप्त करता है । वहाँ जो गन्ध, अक्षत पुष्प तथा विविध प्रकार के नैवेद्यों से कुमारी का पूजन करता है, वह सिद्धीश्वरता को प्राप्त करता है । १२ ।

अनेक मुनिगणों से युक्त सरस्वती के रमणीय तट पर मोक्ष मार्गदायक अनेक मनोरम तीर्थ है । सुन्दरि ! उन सबको संसार से मुक्ति के लिए मैं बता रहा हूँ । १३ ।

पण्डिते ! उसे संक्षेप में सुनो, जिसे मैंने शिव से सुना था । यह क्षेत्र परम गोपनीय है । जिस किसी को यह नहीं बताना चाहिए । १४ ।

यहाँ ब्रह्मा आदि देवता परम सिद्धि को प्राप्ति हुए थे । जो इसमें स्नान कर पितरों, देवों और ऋषियों का तर्पण करता है, वह चराचर समेत सम्पूर्ण जगत् का तर्पण कर लेता है । उसके पितर चौदहों इन्द्रों के समय तक तृप्त होते हैं । २५-१६ ।

जो इसमें परम भक्ति से हर्मषपूर्वक स्नान करता है, वह ऋषियों के लिए भि यहाँ भूमिदान करता है, वह पापों से रहित होकर परब्रह्म को प्राप्त करता है । २७-२८ ।

जो देवगणों से घिरे हुए इस क्षेत्र में प्राणों को छोड़ता है, उसके मरने पर काशी या गया में श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं । १९ ।

वह विशुद्धात्मा मुक्त हो जाता है । उसका पुनर्जन्म नहीं होता । सरस्वती और इन्दीवर का संगम जहाँ है, उसमें स्नान करके मनुष्य सनातन ब्रह्म लोक में चला जाता है । २० ।

दूसरा तुम्हें बताऊँगा, जो अत्यन्त पुण्यदायक शिवलिंग है । कालीक्षेत्र में महालिंग केदारनाथ से भी अधिक पुण्यदायक है । २१ ।

महाभागे ! उनके पूजन से ब्रह्म आदि देवताओं ने अपना-अपना पद प्राप्त किया, जिसमें पुनरावृत्ति दुर्लभ है । २२ ।

जो उस लिंग का पूजन करता है, वह परम पद को प्राप्त करता है । उसके दर्शन, ध्यान और स्मरण से भी पापक्रान्त मनुष्य भी पापरूपी केंचुल से मुक्त होकर शिव लोक में तब तक निवास करते हैं जब तक चन्द्रमा और तारे रहते हैं । २३-२४ ।

वह शिवलिंग कालीश्वर नाम से प्रसिद्ध है ।उसके समीप पवित्र जल है, जिसके पान करने से मनुष्य ब्रह्मलोक को जाता है, इसमें सन्देह नहीं । २५ ।

कालीक्षेत्र प्रत्यक्ष फलदायक माना गया है । वहाँ आज भी शंख, ढोल और मृदंग के शब्द सुनाई पड़ते हैं । २६ ।

कभी-कभी वहाँ मुनियों का महान अद् भुत वेदघोष सुनाई देता है । वहाँ गन्धर्व गाते हैं और अप्सराएँ नाचती हैं । २७ ।

उन्हें देखने के लिए सिंह और बाघ नित्य वहाँ आते हैं । उनमें परस्पर वैर भाव नहीं रहता है, ऐसा आज भी धार्मिक लोग देखते हैं । २८ ।

सिद्ध, मुनिगण और इन्द्र आदि देवता कलियुग में पापनाशिनी महाकाली की सर्वदैव पूजा करते हैं । २९ ।

प्रिये ! कलियुग में मोक्षदायिनी काली के विना मनुष्यों को सर्वथा भोग और मोक्ष देने वाली कोई नहीं है । ३० ।

जो कोई व्यक्ति एकाग्र मन होकर एक रात या दो रात या तीन रात या सात रात देवी का मन्त्र जपता है, उसके समान वरदायिनी देवी प्रत्यक्ष हो जाती हैं । ३१ ।

एक मास तक फलाहार करके जो वहाँ सरस्वती क मंत्र जप करता है, वह बृहस्पति के समान शास्त्रज्ञाता विद्वान् होता है । ३२ ।

वहीं विशुद्ध अग्नि से उत्पन्न एक वृक्ष है, जिसके सुनहले फूलों से देववृन्द देवी का पूजन करते हैं । ३३ ।

यदि पवित्र मनुष्यों को भाग्यवश उस वृक्ष का दर्शन हो जाता है तो तीनों लोकों में वे ही तौ पुण्यात्मा मुक्त पुरूष हैं, इसमें सन्देह नहीं । ३४ ।

देवी ! मेरी प्रिये ! दिव्य और आश्चर्य की बात सुनो ! देवी के पश्चिम भाग में निकट ही एक उत्तम शिवलिंग है । ३५ ।

महादेवी के समीप तेजोरूप वह लिंग फलदायक है । वह सिद्धेश्वर नाम से प्रसिद्ध है । वह दर्शन से मुक्ति देने वाला है । ३६ ।

वहाँ मतंग नामक शिला परम स्थान देने वाली है । वहाँ मतंग मुनि ने अत्यन्त दारुण तप किया । ३७ ।

सुन्दरि ! वहाँ देवी सदैव निवास करती हैं और पशु आदि की बलीयों से प्रसन्न होकर मनोरथों को देती है । ३८ ।

वहाँ जो मनुष्य पितरों को उद्देश्य करके श्राद्ध करते हैं, उनके पितर विमुक्त हो जाते हैं और वो ही पितर पुत्रवान् कहलाते हैं । ३९ ।

वहाँ से देवी के पूर्वभाग में दो कोश दूर पर्वत पर रणमण्डदना नाम से प्रसिद्ध महादेवी है || ४० ||

वहाँ जाने पर मनुष्य स्वस्थ देवीलोक को प्राप्त करता है । शरद और वसंत ऋतुओं में (अर्थात् दोनों नवरात्रों में) जो बलि और नैवेद्यों से भक्ति पूर्वक देवी की पूजा करता है, उसकी पूजा देवता करते हैं । ४१ ।

वह घुँघरूओं के समूह की माला से युक्त उत्तम विमान पर चढ़कर चारों ओर अप्सराओं के समूह, गन्धर्वों, सिद्धों और किन्नरों से शोभायमान हो सूर्यमंडल का भेद करके मुनिवरों के अभीष्ट एवं दुःखरहित ब्रह्मलोक को जाता है । ४२-४३ ।

और यहाँ जो मनोरथ करता है, उसे निःसनदेह प्राप्त करता है । यह समस्त पापों का शमन करने वाला और सकल उपद्रवों का नाश करने वाला है । नित्य दान करने वाले मनुष्यों को यह समस्त ऐश्वर्य देने वाला है । ४४ ।

इस पर्वत पर महाकाली ने आकाश में उछलकर अत्यन्त दृढ़ हाथों से पृथिवी को ताड़ित किया था । ४५ ।

आज भी वहाँ हाथों क अत्यन्त निर्माल चिह्न दिखाई देता है । तपस्या की सिद्धि देने वाला यही उत्तम स्थान है । ४६ ।

महाभागे ! इस पर्वत पर सिद्ध, गन्धर्व और किन्नर देवी के साथ सुखपूर्वक विचरण करते हैं, जिन्हें आज भी कोई-कोई देखते हैं । ४७ ।

काली के उत्तर भाग में आधे योजन के परिमाण में महादेवी का समस्त पीठों से उत्तम स्थान है । ४८ ।

वहाँ कोटिमाहेश्वरी देवी नित्य निवास करती हैं । वे देवी सकल पापों का हरण करने वाली तथा समस्त सुख भोग देने वाली हैं । उनके दर्शन से भी मनुष्य को जातिस्मरण के फल का लाभ हो जाता है । ४९ ।

श्रीस्कन्दपुराण के केदारखण्ड में कालीक्षेत्रतीर्थकथन नामक नवासीवाँ अध्याय समाप्त । ८९ ।


अरून्धती बोली - मुनियों से सेवित चरणकमल वाले ! प्राणों से बढ़कर प्रिय ! मेरे पति ! आपने जो मुझे कोटिमाहेश्वरी के विषय में बताया है, उनकी उत्पत्ति कैसे हुई ? यह नाम कैसे पड़ा ? और उनकी स्थिति उस दुर्गम पर्वत पर कैसे हुई ? । १-२ ।

वसिष्टजी बोले - प्रिये ! सुन्दरि ! प्राणवल्लभे ! सुनो ! तुम धन्य हो, पर्याप्त पुण्य कर चुकी हो, क्योंकि तुम्हारी ऐसी सुन्दर मति है । ३ ।

देवी, आदि-अन्त से रहित और वाणी-मन से परे हैं । वही सत्त्व आदि (गुणों) के संयोग से नित्य सृष्टि करती है । ४ ।

है सुमुखि ! वे नित्य, शुद्ध, विकाररहित, आकृति रहित और नाशरहित हैं । तब मैं कैसे उनकी उत्पत्ति बताऊँ ? । ५ ।

परन्तु तुम्हारे प्रेम के कारण मैं उनकी उत्पत्ति बताऊँगा । प्रिये ! जब-जब देवताओं को असुरों से बाधा पहुँचती है तब उसका शमन करने के लिऐ महेश्वरी का आविर्भाव होता है । लोक में तभी ऐसा प्रवाद हो जाता है कि वे अभी उत्पन्न हुई हैं । ६-७ ।

देवों पर अनुग्रह करने के लिऐ महिषासुर के संहार में शुम्भ-निशुम्भ नामका दैत्यों के वध में और राक्तबीज आदि दैंत्यों के मारे में उन महामाया ने असुरों को भयं देने वाली विविध प्रकार की माया को रचा था । ८-९ ।

कहीं सिंहरुप से, कहीं नरसिंहरुप से और कहीं वराहरुप से उन्होंने कुछ (दैत्यों) का वध किया था । १० ।

कुछ को व्रह्मा की शक्ति से कुछ को इन्द्र की शक्ति से, कुछ को वाणरूप से, कुछ को खड्ग रूप से और कूछ को शस्त्रास्त्र रूप से नष्ट किया । ११ ।

वे कहीं बीस भुजा वाली, कहीं सौ भुजा वाली, कहीं हजार भुजा वाली, कहीं बीस मुख वाली, कहीं शुभ मुख वाली, कहीं एक पैर वाली, कहीं दो पैर वाली, कहीं दस लाख पैर वाली और कहीं परार्ध (अन्तिम संख्या) पैर वाली हुई । उन्होंने कुछ को खड्ग से काट डाला और कुछ को लील लिया । १२ -१३ ।

कुछ को शुल से बेधकर आकाश में फेंक दिया । वे कहीं दिखाई पड़ती थीं और कहीं नहीं दिखाई देती थी । १४ ।

कहीं रूपायित कहीं वहुत रूपों वाली और कहीं इन्द्र आदि के रूपों वाली थीं । प्राणप्रिये ! दुर्गा ने जिस कारण इस प्रकार करोड़ों मायाएँ की उसी से उनका नाम कोटिमाहेश्वरी पड़ा । यह विख्यात नाम स्वर्ग से अधिक फल देने वाला है । १५-१६ ।

रमणीय हिमालय पर्वत पर देवी द्वारा आराधना की गई दुर्गा लोगों की हितकामना से वहीं निवास करने लगीं । १७ ।

जो व्यक्ति उनका दर्शन करेगा, उसके हाथ में मोक्ष रहेगा । देवी के पास आये हुए व्यक्ति को देखकर उसके प्रपितामह (पितर) हर्ष से नाचने लगते हैं और हम (पितर) अविनाशी लोक को जा रहे हैं । ऐसा वे कहते हैं तथा प्रमुदित होते हैं । जो वहाँ स्नान एवं तर्पण करके पिण्डदान करते हैं, वे सुपुत्र (अपनी) एक सौ साठ पीढ़ियों को तार देते हैं । १८-१९ ।

सती ! गया में पिण्डदान करने से मनुष्य जो फल प्राप्त करता है, वह फल यहाँ पिण्डदान करने से पाता है । २० ।

जो कोटिमायेश्वरी देवी की भक्तिपुर्वक पुजा करता है, उसकी करोडों कल्प तक पुनरावृत्ति नहीं होती है । २१ ।

जो कोई इस तीर्थ में एक कपिला गौ प्रदान करता है, वह सर्वागपूर्ण, निरोग तथा पँच इन्द्रियों से युक्त होकर उतने सहस्त्रयुगों तक स्वर्गलोक में पूजित होता है जितने उस गौ के शरीर में रोमकूप होते हैं । २२-२३ ।

पश्चात् स्वर्ग से च्युत होने पर वह इस लोक में महाराज होता हैं । विपुल भोगों को भोगकर वह इस तीर्थ में मृत्यु को प्राप्त करता है । २४ ।

महाभागे ! जो इस तीर्थ में प्राणों का परित्याग करता है, वह देवी के सायुज्य मोक्ष को पाता है, यह निःसन्देह सत्य हैं । २५ ।

जो यहाँ एक हाथ भूमि भी ब्रह्मण को प्रदान करता है, वह वन-पर्वत समेत पृथ्वीदान का फल पाता है । २६ ।

प्रिये ! मनुष्य यहाँ एक रात उपवास करके जिस मन्त्र का जप करता है, वह मन्त्र उसे सिद्ध हो जाता है । शत्रुमंत्र भी यहाँ सिद्ध होता है । २७ ।

यह कोटिमायेश्वरी का मुक्तिदायक दिव्य माहात्म्य तुम्हें बता दिया । इसे सुनने से मनुष्य निष्पाप हो जाते हैं । २८ ।

श्रीस्कन्दपुराण के केदारखण्ड में कोटिमाहेश्वरी का माहात्म्यकथन नामक नब्बेवाँ अध्याय समाप्त । ९० ।
 

Comments
* The email will not be published on the website.
I BUILT MY SITE FOR FREE USING