सरस्वती और इन्दीवर का संगम जहाँ है, उसमें स्नान करके मनुष्य सनातन ब्रह्म लोक में चला जाता है । २० । 

जो अत्यन्त पुण्यदायक शिवलिंग है । कालीक्षेत्र में महालिंग केदारनाथ से भी अधिक पुण्यदायक है । २१ । 

उनके पूजन से ब्रह्म आदि देवताओं ने अपना-अपना पद प्राप्त किया, जिसमें पुनरावृत्ति दुर्लभ है । २२ ।

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श्री स्कान्द पुराण केदारखंड

अथैकोननवतितमोऽध्यायः अध्याय 89 & 90 वसिष्ठ उवाच इति ते कथितो देवि रक्तबीजवधो मया । यं श्रुत्वापि नरः पापान्मुच्यते कोटिजन्मजात् ॥१ वसिष्ठजी बोले – हे देवि ! इस प्रकार रक्तबीज क वध मैंने बता दिया, जिसे सुनकर भी मनुष्य करोड़ों जन्मों के पाप से मुक्त हो जाता है । १ । अथ ते कथयिष्यामि कालिकायाः सुदुर्लभम् । माहात्म्यं परमं गोप्यं कलौ दुर्ज्जनमानुषे ॥२ अब मैं कालिका का अत्यन्त दुर्लभ माहात्म्य, जो कलियुग में दुर्जन मनुष्य से बहुत छिपाने योग्य है, तुम्हें बताऊँगा । २ । काली प्रत्यक्षफलदा पूजनात्स्मरणादपि । यः कश्चिन्मानवो भक्त्या पूजयेत्परमां शिवाम् ॥ स याति रूद्रभवनं यावदाभूतसम्प्लवम् ॥३ काली पूजन और स्मरण करने से भी प्रत्यक्ष फल देती है, जो कोई मानव भक्ति से परम शिवा का पूजन करेगा, वह प्रलयकाल तक रुद्र-भवन में वास करता है । ३ । कृते यत्प्राप्यते पुण्यं वर्षकोटिशतैरपि । तत्पुण्यं प्रप्यतेऽत्रैव त्रिरात्रान्नात्र संशयः ॥४ सतयुग में जो पुण्य करोडों वर्ष में प्रप्त होता है, वह पुण्य यहां तीन रात में ही प्राप्त हो जाता है, ईसमें सन्देह नहीं । ४ । माषमात्रं सुवर्णं तु कालिकायै तु यो ददेत् । तत्स्यात्कोटिगुणं पुण्यं वर्द्धमानं दिनेदिने ॥५ जो एक उड़द के बराबर सोना कालिका को समर्पित करता है, वह प्रतिदिन कोटिगुण बढ़ते हुए फल को प्रप्त करता है । ५ । कालीयं दर्शनेनापि कैवल्यफलदायिनी । अस्यै भुमिं तु यो दद्यादपि गोचर्ममात्रिकाम् ॥६ ग्रहनक्षत्रताराणां कालेन पतनाद्भयम् । तस्य नैव कदाचित्तु पतनं विष्णुलोकतः ॥७ यह काली दर्शन से भी मोक्षफ्ल को देने वाली है । जो एक गोचर्म (भूमि की एक नाप, चरसा) मात्र भूमि कालिका को प्रदान करता है, उसका विष्णुलोक से कभी पतन नहीं होता, भले ही ग्रह, नक्षत्र और तारों के समय से गिरने का भय हो । ६-७ । तिलधेनुं च यो दद्याद्ब्राह्मणे वेदपारगे । ससागरवनद्वीपा दत्ता भवति मेदिनी ॥८ जो वहाँ वेदपारंगत ब्राह्मण को तिल की बनी धेनु दान करता है, उसे समुद्र, वन और द्वीपों समेत पृथ्वी दान करने का फल मिलता है । ८ । कोटिसूर्यप्रतीकाशैर्विमानैः सर्वकामिकैः । मोदते सुचिरं कालमक्षयं वृतशासनम् ॥९ वह करोड़ों सूर्य के समान (प्रकाशमान) तथा सकलकामनादायक विमानों से अक्षय लोक को प्राप्त करके चिरकाल तक आनन्द प्राप्त करता है । ९ । पक्षिणो महिषाञ्छागान्मृगान्दिव्यैर्हि यो ददेत् । स तु गन्धर्वगीतः सन् विमानैर्भास्वरप्रभैः ॥१० देवीलोके वसेन्नित्यं ततो भूमौ समागतः । राजा स्याद्धार्मिकः सत्यवक्ता पुत्रसमन्वितः ॥११ जो पक्षियों, महिषों, छागों (बकरों) तथा मृगों को देता है, वह सूर्य के समान कान्ति वाले दिव्य विमानों से गन्धर्वों द्वारा गुणगान किये जाते हुए देवीलोक में (पहुँचकर) नित्य निवास करता है । वहँ से भूमि पर आने पर धार्मिक, सत्यवक्ता और पुत्रों से समन्वित राजा होता है । १०-११ । इह लोके सुखं भुक्त्वा परमं मोदते शिवे । स सिद्धीश्वरतामेति यः कुमारीं प्रपूजयेत् ॥ गन्धाक्षतप्रसूनाद्यैर्नैवेद्यैर्विविधैरपि ॥१२ शिवे ! वह इस लोक में सूख भोगकर परम हर्ष प्राप्त करता है । वहाँ जो गन्ध, अक्षत पुष्प तथा विविध प्रकार के नैवेद्यों से कुमारी का पूजन करता है, वह सिद्धीश्वरता को प्राप्त करता है । १२ । सरस्वत्यास्तटे रम्ये नानामुनिगणान्विते । नानातीर्थानि रम्याणि मुक्तिमार्गप्रदानि च ॥ तानि सर्वाणि तन्वङ्गि वदामि भवमुक्तये ॥१३ अनेक मुनिगणों से युक्त सरस्वती के रमणीय तट पर मोक्ष मार्गदायक अनेक मनोरम तीर्थ है । सुन्दरि ! उन सबको संसार से मुक्ति के लिए मैं बता रहा हूँ । १३ । संक्षेपेण शृणु प्राज्ञे यच्छ्रतं शिवतो मया । इदं क्षेत्रं परं गुह्यं यस्य कस्य न वाचयेत् ॥१४ पण्डिते ! उसे संक्षेप में सुनो, जिसे मैंने शिव से सुना था । यह क्षेत्र परम गोपनीय है । जिस किसी को यह नहीं बताना चाहिए । १४ । अत्र ब्रह्मादयो देवाः परमां सिद्धिमागताः । अत्र स्नात्वा पितृ न्देवानृषीन्यस्तर्पयेन्नरः ॥१५ तेन सन्तर्पितं सर्वं जगच्च सचराचरम् । पितरस्तस्य तृप्ताः स्युर्यावदिन्द्राश्चतुर्द्दश ॥१६ यहाँ ब्रह्मा आदि देवता परम सिद्धि को प्राप्ति हुए थे । जो इसमें स्नान कर पितरों, देवों और ऋषियों का तर्पण करता है, वह चराचर समेत सम्पूर्ण जगत् का तर्पण कर लेता है । उसके पितर चौदहों इन्द्रों के समय तक तृप्त होते हैं । १५-१६ । यः स्नानमाचरेदस्यां भक्त्या परमया मुदा । स याति परमं स्थानमृषीणां यत्सुदुर्लभम् ॥१७ भूमिदानं यः करोति महापातकवानपि । सोऽपि पापैर्वर्जितात्मा परं ब्रह्माधिगच्छति ॥१८ जो इसमें परम भक्ति से हर्मषपूर्वक स्नान करता है, वह ऋषियों के लिए भि यहाँ भूमिदान करता है, वह पापों से रहित होकर परब्रह्म को प्राप्त करता है । १७-१८ । योऽत्रप्राणान्विमुच्येत क्षेत्रे देवगणावृते । मरणेन हि किं काश्यां किं गयायां हि श्राद्धतः ॥१९ जो देवगणों से घिरे हुए इस क्षेत्र में प्राणों को छोड़ता है, उसके मरने पर काशी या गया में श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं । १९ । स तु मुक्तो विशुद्धात्मा पुनरावृत्तिदुर्लभः । सरस्वतीन्दीवरयोः सङ्गमो यत्र वै भवेत् ॥ तत्र स्नात्वा नरो याति ब्रह्मलोकं सनातनम् ॥२० वह विशुद्धात्मा मुक्त हो जाता है । उसका पुनर्जन्म नहीं होता । सरस्वती और इन्दीवर का संगम जहाँ है, उसमें स्नान करके मनुष्य सनातन ब्रह्म लोक में चला जाता है । २० । उन्यच्च ते प्रवक्ष्यामि शिवलिङ्गं सुपुण्यदम् । कालीक्षेत्रे महालिङ्गं केदारादपि पुण्यदम् ॥२१ दूसरा तुम्हें बताऊँगा, जो अत्यन्त पुण्यदायक शिवलिंग है । कालीक्षेत्र में महालिंग केदारनाथ से भी अधिक पुण्यदायक है । २१ । यत्पुजनान्महाभागे ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकसः । स्वं स्वं पदं समालेभुः पुनरावृत्तिदुर्लभम् ॥२२ महाभागे ! उनके पूजन से ब्रह्म आदि देवताओं ने अपना-अपना पद प्राप्त किया, जिसमें पुनरावृत्ति दुर्लभ है । २२ । यः पूजयति तल्लिंगं स गच्छेत्परमं पदम् । यद्दर्शनादपि ध्यानाद्यन्नामस्मरणादपि ॥२३ अपि पापसमाक्रान्ता निर्मुक्ताः पापकञ्चुकात् । प्रयांति शिवसालोक्यं यावदाचन्द्रतारकम् ॥२४ जो उस लिंग का पूजन करता है, वह परम पद को प्राप्त करता है । उसके दर्शन, ध्यान और स्मरण से भी पापक्रान्त मनुष्य भी पापरूपी केंचुल से मुक्त होकर शिव लोक में तब तक निवास करते हैं जब तक चन्द्रमा और तारे रहते हैं । २३-२४ । नान्ना कालीश्वरः ख्यातस्तत्समीपे जलं शुभम् । यत्पानाद्ब्रह्मसदनं याति मर्त्यो न संशयः ॥२५ वह शिवलिंग कालीश्वर नाम से प्रसिद्ध है ।उसके समीप पवित्र जल है, जिसके पान करने से मनुष्य ब्रह्मलोक को जाता है, इसमें सन्देह नहीं । २५ । कालीक्षेत्रं समादिष्टं प्रत्यक्षफलदायकम् । श्रूयन्तेऽद्यापि निर्घोषाः शङ्खभेरीमृदङ्गजाः ॥२६ कालीक्षेत्र प्रत्यक्ष फलदायक माना गया है । वहाँ आज भी शंख, ढोल और मृदंग के शब्द सुनाई पड़ते हैं । २६ । कदाचित्तु मुनीनां हि वेदघोषो महाद्भुतः । गायन्ति यत्र गन्धर्वा नृत्यन्त्यप्सरसाङ्गणाः ॥२७ कभी-कभी वहाँ मुनियों का महान अद् भुत वेदघोष सुनाई देता है । वहाँ गन्धर्व गाते हैं और अप्सराएँ नाचती हैं । २७ । सिंहव्याध्राः समायान्ति नित्यं यद्दर्शनेप्सवः । विहाय वैरं सर्वेषु दृश्यन्तेऽद्यापि धार्मिकैः ॥२८ उन्हें देखने के लिए सिंह और बाघ नित्य वहाँ आते हैं । उनमें परस्पर वैर भाव नहीं रहता है, ऐसा आज भी धार्मिक लोग देखते हैं । २८ । सिद्धा मुनिगणा देवा इन्द्राद्याः सर्वदैव हि । पूजयन्ति महाकालीं कलौ पापप्रणाशिनीम् ॥२९ सिद्ध, मुनिगण और इन्द्र आदि देवता कलियुग में पापनाशिनी महाकाली की सर्वदैव पूजा करते हैं । २९ । कलौ नास्त्येव नास्त्येव विना कालीं विमुक्तिदाम् । भुक्तिदा मुक्तिदा नृर्णां सर्वथैव मम प्रिये ॥३० प्रिये ! कलियुग में मोक्षदायिनी काली के विना मनुष्यों को सर्वथा भोग और मोक्ष देने वाली कोई नहीं है । ३० । एकरात्रं द्विरात्रं वा त्रिरात्रं सप्तरात्रकम् । यश्चैकाग्रमना भूत्वा यः कश्चिद्देवतामनुम् ॥ प्रजपेत्तस्य प्रत्यक्षा देवी स्याद्वरदायिनी ॥३१ जो कोई व्यक्ति एकाग्र मन होकर एक रात या दो रात या तीन रात या सात रात देवी का मन्त्र जपता है, उसके समान वरदायिनी देवी प्रत्यक्ष हो जाती हैं । ३१ । मासमात्रं फलाहारः सरस्वत्या मनुं जपेत् । स भवेच्छास्त्रवित्प्राज्ञौ देवानां च यथा गुरूः ॥३२ एक मास तक फलाहार करके जो वहाँ सरस्वती क मंत्र जप करता है, वह बृहस्पति के समान शास्त्रज्ञाता विद्वान् होता है । ३२ । तत्रैव वर्त्तते वृक्षो विशुद्धाग्निज सम्भवः । पूजयन्ति सुरा देवीं तत्पुष्पैः स्वर्णसम्भवैः ॥३३ वहीं विशुद्ध अग्नि से उत्पन्न एक वृक्ष है, जिसके सुनहले फूलों से देववृन्द देवी का पूजन करते हैं । ३३ । यदि भाग्यवशाद्वृक्षो दृश्यते मानुषैः शुभैः । त एव पुण्या लोकेषु विमुक्तास्ते न संशयः ॥३४ यदि पवित्र मनुष्यों को भाग्यवश उस वृक्ष का दर्शन हो जाता है तो तीनों लोकों में वे ही तौ पुण्यात्मा मुक्त पुरूष हैं, इसमें सन्देह नहीं । ३४ । श्रणु देवि प्रिये दिव्यमाश्चर्यं वल्लभे मम । देव्याः पश्चिमभागे तु समीपे लिङ्गमुत्तमम् ॥३५ देवी ! मेरी प्रिये ! दिव्य और आश्चर्य की बात सुनो ! देवी के पश्चिम भाग में निकट ही एक उत्तम शिवलिंग है । ३५ । तेजोरूपं महादेव्याः समीपे फलदायकम् । नाम्ना सिद्धेश्वरं ख्यातं दर्शनान्मुक्तिदायकम् ॥३६ महादेवी के समीप तेजोरूप वह लिंग फलदायक है । वह सिद्धेश्वर नाम से प्रसिद्ध है । वह दर्शन से मुक्ति देने वाला है । ३६ । मतङ्गाख्या शिला तत्र परमस्थानदायिनी । मतङ्गमुनिना यत्र तपस्तप्तं सुदारूणम् ॥३७ वहाँ मतंग नामक शिला परम स्थान देने वाली है । वहाँ मतंग मुनि ने अत्यन्त दारुण तप किया । ३७ । सदैव निलयं देव्या यत्रास्ते वरवर्णिनि । पश्वादिबलिभिः प्रीता ददाति च मनोरथान् ॥३८ सुन्दरि ! वहाँ देवी सदैव निवास करती हैं और पशु आदि की बलीयों से प्रसन्न होकर मनोरथों को देती है । ३८ । पितृर्नुदिश्य ये श्राद्धं तत्र कुर्वन्ति मानवाः । विमुक्ताः पितरस्तेषां पितरस्ते तु पुत्रिणः ॥३९ वहाँ जो मनुष्य पितरों को उद्देश्य करके श्राद्ध करते हैं, उनके पितर विमुक्त हो जाते हैं और वो ही पितर पुत्रवान् कहलाते हैं । ३९ । ततो देव्याः पूर्वभागे गिरो गव्यूतिमात्रके । आस्ते तत्र महादेवी नान्ना तु रणमण्डना ॥४० वहाँ से देवी के पूर्वभाग में दो कोश दूर पर्वत पर रणमण्डदना नाम से प्रसिद्ध महादेवी है । ४० । यत्र गत्वा नरो याति देवीलोकमनामयम् । शरद्वसन्तयोः काले बलिपूजोपहारकैः ॥ पूजयेद्भक्तिभावेन पूजयन्त्येव तं सुराः ॥४१ वहाँ जाने पर मनुष्य स्वस्थ देवीलोक को प्राप्त करता है । शरद और वसंत ऋतुओं में (अर्थात् दोनों नवरात्रों में) जो बलि और नैवेद्यों से भक्ति पूर्वक देवी की पूजा करता है, उसकी पूजा देवता करते हैं । ४१ । विमानवरमारूह्य किङ्किणी जालमालिनम् । परितोऽप्सरसां वृन्दैर्गन्धर्वैः सिद्धकिन्नरैः ॥४२ शोभमानं प्रयात्येव भित्वा सूर्यस्य मण्डलम् । ब्रह्मलोकं मुनिवरैरीप्सितं दुःखवर्जितम् ॥४३ वह घुँघरूओं के समूह की माला से युक्त उत्तम विमान पर चढ़कर चारों ओर अप्सराओं के समूह, गन्धर्वों, सिद्धों और किन्नरों से शोभायमान हो सूर्यमंडल का भेद करके मुनिवरों के अभीष्ट एवं दुःखरहित ब्रह्मलोक को जाता है । ४२-४३ । अत्र यं कुरूते कामं तं तं प्राप्नोत्यसंशयम् । सर्वपापप्रशमनं सर्वोपद्रवनाशनम् ॥ समस्तैश्वर्यदं पुंसां नित्यं दानविधायिनाम् ॥४४ और यहाँ जो मनोरथ करता है, उसे निःसनदेह प्राप्त करता है । यह समस्त पापों का शमन करने वाला और सकल उपद्रवों का नाश करने वाला है । नित्य दान करने वाले मनुष्यों को यह समस्त ऐश्वर्य देने वाला है । ४४ । अस्मिन् गिरौ महाकाली समाप्लुत्य नभस्तलम् । कराभ्यां सुदृढाभ्यां तु पृथिवीं समताडयत् ॥४५ इस पर्वत पर महाकाली ने आकाश में उछलकर अत्यन्त दृढ़ हाथों से पृथिवी को ताड़ित किया था । ४५ । अद्यापि दृश्यते तत्र करचिह्नं सुनिर्मलम् । इदमेव परं स्थानं तपःसिद्धिप्रदायकम् ॥४६ आज भी वहाँ हाथों क अत्यन्त निर्माल चिह्न दिखाई देता है । तपस्या की सिद्धि देने वाला यही उत्तम स्थान है । ४६ । पर्वतेऽस्मिन्महाभागे सिद्धगन्धर्वकिन्नराः । विचरन्ति सुखं देव्या दृश्यन्तेऽद्यापि कैश्चन ॥४७ महाभागे ! इस पर्वत पर सिद्ध, गन्धर्व और किन्नर देवी के साथ सुखपूर्वक विचरण करते हैं, जिन्हें आज भी कोई-कोई देखते हैं । ४७ । काल्याश्चोत्तरभागे तु योजनार्द्धेन सम्मिते । तत्र स्थानं महादेव्याः सर्वपीठोत्तमोत्तमम् ॥४८ काली के उत्तर भाग में आधे योजन के परिमाण में महादेवी का समस्त पीठों से उत्तम स्थान है । ४८ । कोटिमाहेश्वरी देवी वसते नित्यमेव हि । सर्वपापहरा सर्वसुखभोगप्रदायिनी ॥ यद्दर्शनादपि नरो जातिस्मरणमाप्नुयात् ॥४९ वहाँ कोटिमाहेश्वरी देवी नित्य निवास करती हैं । वे देवी सकल पापों का हरण करने वाली तथा समस्त सुख भोग देने वाली हैं । उनके दर्शन से भी मनुष्य को जातिस्मरण के फल का लाभ हो जाता है । ४९ । इति श्रीस्कान्दे केदारखण्डे कालीक्षेत्रतीर्थाभिधानं नामैकोननवतितमोऽध्यायः ।८९ श्रीस्कन्दपुराण के केदारखण्ड में कालीक्षेत्रतीर्थकथन नामक नवासीवाँ अध्याय समाप्त । ८९ ।

अथ नवतितमोऽध्यायः अध्याय 90 अरून्धत्युवाच मुनिसोवितपादाब्ज प्राणवल्लभ मत्पते । या त्वया सूचिता मह्यं कोटिमाहेश्वरीति वै ॥१ कथं तस्याः समुत्पत्तिः कथं नाम बभूव हि । कथं तस्याः स्थितिस्तत्र दुर्गमे हिमपर्वते ॥२ अरून्धती बोली - मुनियों से सेवित चरणकमल वाले ! प्राणों से बढ़कर प्रिय ! मेरे पति ! आपने जो मुझे कोटिमाहेश्वरी के विषय में बताया है, उनकी उत्पत्ति कैसे हुई ? यह नाम कैसे पड़ा ? और उनकी स्थिति उस दुर्गम पर्वत पर कैसे हुई ? । १-२ । वसिष्ठ उवाच श्रृणु प्रिये वरारोहे सुन्दरि प्राणवल्लभे । धन्यासि कृतपुण्यासि यस्यास्ते ईदृशी मतिः ॥३ वसिष्टजी बोले - प्रिये ! सुन्दरि ! प्राणवल्लभे ! सुनो ! तुम धन्य हो, पर्याप्त पुण्य कर चुकी हो, क्योंकि तुम्हारी ऐसी सुन्दर मति है । ३ । अनादिनिधना देवी ने वाङ्मनसगोचरा । सैव सत्त्वादिसंयोगात्सृष्टण्यदीन् कुरूते भृशम् ॥४ देवी, आदि-अन्त से रहित और वाणी-मन से परे हैं । वही सत्त्व आदि (गुणों) के संयोग से नित्य सृष्टि करती है । ४ । नित्या शुद्धा निर्विकारा निराकारा निरत्यया । कथं तस्याः समुत्पत्तिं वदामि सुन्दरानने ॥५ है सुमुखि ! वे नित्य, शुद्ध, विकाररहित, आकृति रहित और नाशरहित हैं । तब मैं कैसे उनकी उत्पत्ति बताऊँ ? । ५ । परं तु त्वद्गतप्रीत्या वक्ष्यामि तज्जनिं शुभाम् । यदा यदा हि बाधा स्यद्देवानामासुरी प्रिये ॥६ तदा तच्छमनार्थाय ह्यविर्भूता महेश्वरी । लोके सा तु तदोत्पन्नेत्येवं वादो भवत्यथ ॥७ परन्तु तुम्हारे प्रेम के कारण मैं उनकी उत्पत्ति बताऊँगा । प्रिये ! जब-जब देवताओं को असुरों से बाधा पहुँचती है तब उसका शमन करने के लिऐ महेश्वरी का आविर्भाव होता है । लोक में तभी ऐसा प्रवाद हो जाता है कि वे अभी उत्पन्न हुई हैं । ६-७ । देवानुग्रहणार्थाय महिषासुरघातने । तथा शुम्भनिशुम्भस्य दैत्ययोर्विनिपातने ॥८ रक्तबीजादिदैत्यानां मारणे स महात्मिका । चकार विविधा माया असुराणां भयप्रदाः ॥९ देवों पर अनुग्रह करने के लिऐ महिषासुर के संहार में शुम्भ-निशुम्भ नामका दैत्यों के वध में और राक्तबीज आदि दैंत्यों के मारे में उन महामाया ने असुरों को भयं देने वाली विविध प्रकार की माया को रचा था । ८-९ । क्वचिच्च सिंहरूपेण नारसिंहेन च क्वचित् । क्वचित्कांश्चिज्जघानासौ वाराहं रूपमाश्रिता ॥१० कहीं सिंहरुप से, कहीं नरसिंहरुप से और कहीं वराहरुप से उन्होंने कुछ (दैत्यों) का वध किया था । १० । कांश्चिद्वै ब्रह्मणः शक्त्या इन्द्रशक्त्या तथापरान् । बाणरूपेन खड्गेन शस्त्रशास्त्रस्वरूपिणी ॥११ कुछ को व्रह्मा की शक्ति से कुछ को इन्द्र की शक्ति से, कुछ को वाणरूप से, कुछ को खड्ग रूप से और कूछ को शस्त्रास्त्र रूप से नष्ट किया । ११ । क्वचिच्च विंशतिभुजा शतहस्ता तथा क्वचित् । क्वचित्सहस्त्रहस्ता च विंशास्या शुभतुण्डधृक् ॥१२ एकपादा द्विपादा च नियुताङिघ्रः परार्द्धपात् । कांश्चित्खड्गेन चिच्छेद निजगाल तथाऽपरान् ॥१३ वे कहीं बीस भुजा वाली, कहीं सौ भुजा वाली, कहीं हजार भुजा वाली, कहीं बीस मुख वाली, कहीं शुभ मुख वाली, कहीं एक पैर वाली, कहीं दो पैर वाली, कहीं दस लाख पैर वाली और कहीं परार्ध (अन्तिम संख्या) पैर वाली हुई । उन्होंने कुछ को खड्ग से काट डाला और कुछ को लील लिया । १२ -१३ । कांश्चिच्छूलेन भित्त्वा च चिक्षेप गगनान्तरे । क्वचिद्दर्शनयोग्याभूत्क्वचिद्दश्या न कैश्चन ॥१४ कुछ को शुल से बेधकर आकाश में फेंक दिया । वे कहीं दिखाई पड़ती थीं और कहीं नहीं दिखाई देती थी । १४ । अरूपा बहुरूपा च क्वचिदिन्द्रादिरूपिणी । एवं चक्रे यतो मायाः कोटीः प्राणस्य वल्लभे ॥१५ अतस्तस्या बभूवैतत्कोटिमायेश्वरीति च । नाम विख्यातिमायातं स्वर्गाधिकफलप्रदम् ॥१६ कहीं रूपायित कहीं वहुत रूपों वाली और कहीं इन्द्र आदि के रूपों वाली थीं । प्राणप्रिये ! दुर्गा ने जिस कारण इस प्रकार करोड़ों मायाएँ की उसी से उनका नाम कोटिमाहेश्वरी पड़ा । यह विख्यात नाम स्वर्ग से अधिक फल देने वाला है । १५-१६ । हिमवत्पर्वते रम्ये देवैराराधिता सती । तत्रैव वसतिं चक्रे लोकानां हितकाम्यया ॥१७ रमणीय हिमालय पर्वत पर देवी द्वारा आराधना की गई दुर्गा लोगों की हितकामना से वहीं निवास करने लगीं । १७ । यः कुर्य्याद्दर्शनं तस्या मुक्तिस्तस्य करे स्थिता । देवीं प्रति समायान्तं दृष्ट्वा तत्प्रपितामहाः ॥ नृत्यन्ति हर्षिताः सर्वे व्रजामो लोकमव्ययम् ॥१८ इत्येवं वादिनो भद्रे वदन्ति च रमन्ति च । यैः कृतं पिण्डदानं हि स्नानतर्पणपुर्वकम् ॥ तारितं तैः सुपुत्रैस्तु कलमेकोत्तरं शतम् ॥१९ जो व्यक्ति उनका दर्शन करेगा, उसके हाथ में मोक्ष रहेगा । देवी के पास आये हुए व्यक्ति को देखकर उसके प्रपितामह (पितर) हर्ष से नाचने लगते हैं और हम (पितर) अविनाशी लोक को जा रहे हैं । ऐसा वे कहते हैं तथा प्रमुदित होते हैं । जो वहाँ स्नान एवं तर्पण करके पिण्डदान करते हैं, वे सुपुत्र (अपनी) एक सौ साठ पीढ़ियों को तार देते हैं । १८-१९ । गयायां पिण्डदानेन यत्फलं लभते नरः । तत्फलं लभते ह्यत्र पिण्डदाने कृते सति ॥२० सती ! गया में पिण्डदान करने से मनुष्य जो फल प्राप्त करता है, वह फल यहाँ पिण्डदान करने से पाता है । २० । कोटिमायेश्वरीं देवों यः पुजयति भक्तितः । न तस्य पुनरावृत्तिः कल्पकोटिशतैरपि ॥२१ जो कोटिमायेश्वरी देवी की भक्तिपुर्वक पुजा करता है, उसकी करोडों कल्प तक पुनरावृत्ति नहीं होती है । २१ । यः कश्चित्कपिलामेकामस्मिंस्तीर्थे प्रयच्छति । अहीनाङ्गो ह्यरोगश्च पञ्चेन्द्रियसमन्वितः ॥२२ यावन्ति रोमकूपानि तस्य गात्रेषु सन्ति वॆ । तावद्युगसहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥२३ जो कोई इस तीर्थ में एक कपिला गौ प्रदान करता है, वह सर्वागपूर्ण, निरोग तथा पँच इन्द्रियों से युक्त होकर उतने सहस्त्रयुगों तक स्वर्गलोक में पूजित होता है जितने उस गौ के शरीर में रोमकूप होते हैं । २२-२३ । ततः स्वर्गात्परिभ्रष्टो राजराजो भवेदिह । स भुक्त्वा विपुलान्भोगान्मत्तीर्थे मरणं भवेत् ॥२४ पश्चात् स्वर्ग से च्युत होने पर वह इस लोक में महाराज होता हैं । विपुल भोगों को भोगकर वह इस तीर्थ में मृत्यु को प्राप्त करता है । २४ । अस्मिंस्तीर्थे महाभागे यस्तु प्राणान्परित्यजेत् । देवीसायुज्यमाप्नोति सत्यं सत्यं न संशयः ॥२५ महाभागे ! जो इस तीर्थ में प्राणों का परित्याग करता है, वह देवी के सायुज्य मोक्ष को पाता है, यह निःसन्देह सत्य हैं । २५ । यस्तु भूमिं प्रयच्छेत हस्तमात्रामपि द्विजे । तेन दत्ता भवेत्पृथ्वी सशैलवनकानना ॥२६ जो यहाँ एक हाथ भूमि भी ब्रह्मण को प्रदान करता है, वह वन-पर्वत समेत पृथ्वीदान का फल पाता है । २६ । यं मन्त्रं प्रजपेदत्र चैकरात्रोषितो नरः । स मन्त्रसिद्धितां याति शत्रुमंत्रोऽपि वल्लभे ॥२७ प्रिये ! मनुष्य यहाँ एक रात उपवास करके जिस मन्त्र का जप करता है, वह मन्त्र उसे सिद्ध हो जाता है । शत्रुमंत्र भी यहाँ सिद्ध होता है । २७ । इति ते कथितं दिव्यं माहात्म्यं मुक्तिदायकम् । कोटिमायेश्वरीदेव्या यैः श्रुतं ते विकल्मषाः ॥२८ यह कोटिमायेश्वरी का मुक्तिदायक दिव्य माहात्म्य तुम्हें बता दिया । इसे सुनने से मनुष्य निष्पाप हो जाते हैं । २८ । इति श्रीस्कान्दे केदारखण्डे कोटिमाहेश्वरीमाहात्म्यकथनं नाम नवतितमोऽध्याय ।९० श्रीस्कन्दपुराण के केदारखण्ड में कोटिमाहेश्वरी का माहात्म्यकथन नामक नब्बेवाँ अध्याय समाप्त । ९० ।

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